Wednesday, September 21, 2011

जमाना सचमुच बदल गया !!


मंजिल किधर नहीं खबर बस चलते जा रहे लोग !
परवाह किसे क्या पथ हो बस चलते जा रहे लोग !!


अभिव्यक्ति भी नहीं पीड़ा की अभ्यस्त हो चला जीवन अब 
ये लाचारी है  या फिर  नाकामी  बस चलते जा रहे लोग !! 


क्या हो गया हवाओं को  किसके संकेत से चलती हैं ?
झोकों को हवा का रुख समझे  बस चलते जा रहे लोग !!


नज़र  लग गयी जमाने को या ज़माना सचमुच बदल गया
या बदले जमाने को पकड़ने को बस चलते जा रहे लोग !!

जमाना  बहती गंगा  है   तुम भी  धो  लो  हाथ 
तुम भी चलना सीख ही लो जैसे चलते जा रहे लोग !!


....................अरुण 
वाराणसी 
बुधवार, २१ सितम्बर, २०११.

Tuesday, July 5, 2011

एक तैलीय कविता

...........^^****^^..........
तेल ही तेल हर तरफ था 
वह भी एक समय था !
फिर आया तेलुओं  का बोलबाला 
तेल लगाने में सब के सब आला 
   अब तो तेल लगने लगा 
   लगवाया जाने लगा 
   पीपा का पीपा भरा जाने लगा 
   तेलियों का तेल 
   तेलुओं के यहाँ सीधा आने  लगा !
एक तो पहले से ही चिकने घड़े थे 
जो आला अफसर थे बड़े थे 
काम में सड़े थे 
घी दूध खाकर पड़े थे 
   मिलने लगा लुत्फ़ उन्हें तेल लगवाने का 
   आँख कान जबान बंद कर - मालिश करवाने का 
   अब तो वे तेलुओं का ही काम करते हैं 
   बाकी के लिए नियम-बद्ध खड़े रहते हैं 
ऐसे ही रहा तेल की खपत बड़ों को रिझाने में 
तब तेल तो महँगा होगा ही आज के जमाने में !!

............अरुण 
(बृहस्पतिवार, जून १३ , २००२ )

Tuesday, April 12, 2011

प्यास

प्यास 
ज्ञान की  प्राप्ति की 
नींद की    सुख की 
वैभव की  बाहुबल की 
पानी की !

कहानी की किताब में 
पानी था  प्यास के लिए  
पर प्यास की तास 
कैसे बढ़ती गयी 
कि पाने की लालसा 
प्यास में परिवर्तित होती गयी 
बुझती नहीं दो चार घूँट में 
सतत लपलपाती हैं इन्द्रियाँ 
दूसरे के हिस्से का भी 
छीन कर पीने को आतुर !

........अरुण  
( मंगलवार, १२ अप्रैल २०११)

Sunday, April 10, 2011

"हर हर बम बम ..."

सर ढको तन ढको 
खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे 
डस लेगा संसार.

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को खुला ही रखना 
बूढ़ा नाई युवा  बैद? मत पास फटकना 
सुन लो भाई राम दुहाई खोल के अपने कान 
पढ़े लिखों की आज हो गयी अंग्रेजी पहचान 
अंग्रेजी अधकचरी ही हो जमकर कर उपयोग 
मान बढ़ेगी इज्जत होगी ऐसा समझ के बोल !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को  बंद ही रखियो 
घर के अन्दर की बात किसी से कभी न कहियो 
नेता देखो - तुरत सलामी देना तू मत भूल 
नेता मंत्री भड़क गए तो चुभ जायेगी शूल 
सरकारी अफसर से बचना कभी न लेना पंगे 
तेरी पानी कीचड होगी उसकी हर हर गंगे !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान तो कान है भाई 
बीवी बच्चे बाप सभी मिल करें खिंचाई 
निर्धनता का रोग ख्नूब है लटके रहते कंधे 
खाज़ कोढ़ में होती जब मंहगाई मारे डंडे !
ज़ेब दिखाता ठेंगा निसिदिन पेट करे फ़रियाद 
बीवी देती तानें ऊपर से कर्ज़े की मार  !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को मारो गोली 
उघड़े तन को नित टीवी में दिखलाती है गोरी 
बेढंगी बेपर्दा करती धन चाहत की भूख 
देस के हीरो बने नचनिये ! टीवी भी क्या खूब 
इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने क्या नाच दिखाई 
भारत माँ निर्वस्त्र हो गयी फिर भी शर्म न आयी !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को भूल ही जाओ 
बस अपनी ही बोलो बोल के छू हो जाओ 
राजनीति औ नेता बन गए गाली के पर्याय 
फिर भी सौंपे उन्ही के हाथों लिखने अपना अध्याय 
सांप को तुमने दूध पिलाया अब हो चला वो मोटा 
घेर घेर के मारे देस को भष्टाचार का सोटा !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार ......
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार.....

.....अरुण 
(रविवार २७ अगस्त २००८)


Thursday, April 7, 2011

तंत्र

पहले राजा (हुआ करते) थे 
अब है लोकतंत्र  !
लोकतंत्र पर आच्छादित 
पल बढ़ रहे कई तंत्र 
पुलिस-तंत्र  प्रशासन-तंत्र   
मंत्री-तंत्र   मंत्री के सगे-संबंधी  तंत्र  
इस तंत्र में मंत्रमुग्ध -
तिरसठ साल से पड़ा लोकतंत्र  !

सुना है पुलिस तंत्र प्रसन्न है 
उनपर लक्ष्मी  मईया  कृपासन्न हैं 
प्रशासन शवासन में लेटा है 
इस तंत्र ने भी अच्छा समेटा है 


तंत्रों के तांते लगे हैं 
प्रधानी से संसद तक 
हर जगह नेताई के खांचे लगे हैं 
फिट होने की होड़ में संख्या बढती जाती है 
तंत्र बढा    नेता बढे
जनता सिमटी जाती है !!
      .........अरुण 
(वृहस्पतिवार ७ अप्रैल २०११)

Tuesday, April 5, 2011

भदेस

भारत हमारा देस है 
सर्वत्र स्वच्छंद परिवेश है 
सभी को समस्त सुविधाएं हैं 
सब फले फूले मोटाये हैं 
दुविधा  का दलदल है 
कहाँ कोई क्लेश है ?
भारत हमारा देस है 

कोई भी श्वान 
कभी भी कहीं भी कुछ भी 
भौंक सकता है !
बनाकर सड़क को नाला 
वराह जब चाहे जितना 
लोट सकता है !
उपलब्ध है चारागाह 
हर प्रकार के गर्दभों को !
राजकीय टिड्डी दल 
हमारे खेतों को खोंट सकता है !
सभी चीजों का सर्वत्र समावेश है 
भारत हमारा देस है.

भूखे भेड़ियों को 
व्यभिचार का चारा 
जन प्रतिनिधियों को 
नारों का नगाड़ा 
चुगने की - बजाने की 
पूर्ण स्वतन्त्रता है !
भिक्षुक जनसेवक भिक्षाटन में 
बाहुबली जन-त्राटन में 
तो बाबा जी वाचन में 
तन्मयता से व्यस्त हैं !

मेरे भाई यही तो सत्य है.
मत कहिये देस में भदेस है
इसी में रच बस जाइए 
यही अब अपने पूर्वजों का देस है
सर्वत्र स्वच्छंद परिवेश है.
भारत हमारा देस है !!

......अरुण
(सोमवार १३ जून २००३ )

Tuesday, March 22, 2011

नारी गाथा


कभी चन्द्र मुंखी  कभी सूर्य मुंखी 
कभी बिहस उठी कभी  दीन दुखी  
कभी सीता सती अरु वेद व्रती 
कभी कैसी !! हे नारी तू कितनी मुंखी  ?

भूषन को कवि बनाई तू 
तुलसी को राह दिखाई तू 
रक्षा की अपने सत्यवान की 
फिर भी इतनी हरजाई क्यूँ?

चंडी बन समर में कूद पड़ी 
दुर्गा बन दैत्य से जूझ पड़ी 
तेरी घातक बांकी चितवन से 
कितनो के जान की आन पड़ी.

तुम सुरसा लक्ष्मी हो भी तुम्ही 
अमृत हो पर हो जहर तुम्ही 
रूप धरी माँ बहन की पर 
शौहर पर अपने कहर तुम्ही 

नव पीढ़ी देश के युवकों की 
तेरे मोहक पाश में तड़प रहे
वे फेंक किताबें एक तरफ 
तेरे दर्शन को ही तरस  रहे.

कितने तो रूप बनाय लिया !
ये  नए ढंग अपनाय लिया ?
क्या जादूगरनी बन कर के 
अब पुरुष विनाश की ठान लिया ?

कुछ ख्याल करो हे देवी जी 
यह देश गर्त में जाई  रहा 
तज अरुण को  अपने चंगुल से 
यह वर तुमसे मै मांग रहा . 
.
...........अरुण 
(some time in 1984)

गर्दभ ज्ञान

 साधू स्वभाव ! कितना सीधा !!
अद्भुत सरलता का मिसाल !!!
सर्वस्व सहन कर चुप रहते 
शान्ति तुम्हारी बेमिसाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

हो मूक ..थूक  गुस्से को 
तुम चलते हो बोझ को लेकर के 
सारे अधिकार नियंत्रण का 
स्वामी को अपने देकर के 
तुम झूम के चलते दुलकी चाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

जब कभी दुलत्ती देते हो 
तब लगते साहस के प्रतीक
दुनिया से अलग अनोखी ही 
किस अदा से करते तुम कवित्त 
संगीत तुम्हारी बेमिसाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

शांतिदूत नेहरु जी को ही 
बस वही लोग ही कहते है 
सर्वथा अपिरिचित तुमसे 
या तुमसे जो ईर्ष्या रखते हैं 
मिलना चहिये तुम्हे अबकी बार 
शान्ति का नोबेल पुरस्कार
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..
.
.......................अरुण 
.( some time in 1982)

Friday, January 28, 2011

...................शब्द

शब्द
शब्द समय से क्यूँ  नहीं मिलते ?
फडफडाते  हैं होंठ 
अटक जाती जिह्वा
अभिव्यक्ति को तरस जाता है मन
पर सही समय पर 
सही शब्द क्यूँ नहीं मिलते?

आदत पड़  गयी है लाचारियाँ सहने की
बिलबिलाते कसमसाते कराहते रहने की 
मर गया है पुंसत्व 
खो गया है स्वाभिमान 
सूख गया है रक्त 
खो दिया है जैसे अपना ही परिचय
नहीं है आभास कि प्रतिरोध क्यूँ नहीं करते 
शब्द समय से क्यूँ नहीं मिलते ?

शब्दों के समंदर में तैरते ही रहने की 
आदत है उधर की इधर से कहने की 
इसी के हैं अभ्यस्त 
समाप्त हो गया है स्वत्व 
मुखर है तृष्णा 
मुरझा गयी है जैसे आत्मा की किसलय 
सूखते जड़ को पुनः सिंचित क्यूँ नहीं करते 
शब्द समय से क्यूँ नहीं मिलते?

शब्दों के जाल - भ्रम का  जंजाल 
भ्रम के जंजाल में समस्त सुर ताल 
खुली हैं आँखें 
बंद है दृष्टि 
मूक है स्वर 
शून्य है चेतना   वेदना है अविरल 
काट कर जाल निकलने का प्रयास क्यूँ नहीं करते 
शब्द  समय से .....?

...............................................अरुण 
(वृहस्पतिवार,९ जून २००३. अनपरा )