Tuesday, March 22, 2011

नारी गाथा


कभी चन्द्र मुंखी  कभी सूर्य मुंखी 
कभी बिहस उठी कभी  दीन दुखी  
कभी सीता सती अरु वेद व्रती 
कभी कैसी !! हे नारी तू कितनी मुंखी  ?

भूषन को कवि बनाई तू 
तुलसी को राह दिखाई तू 
रक्षा की अपने सत्यवान की 
फिर भी इतनी हरजाई क्यूँ?

चंडी बन समर में कूद पड़ी 
दुर्गा बन दैत्य से जूझ पड़ी 
तेरी घातक बांकी चितवन से 
कितनो के जान की आन पड़ी.

तुम सुरसा लक्ष्मी हो भी तुम्ही 
अमृत हो पर हो जहर तुम्ही 
रूप धरी माँ बहन की पर 
शौहर पर अपने कहर तुम्ही 

नव पीढ़ी देश के युवकों की 
तेरे मोहक पाश में तड़प रहे
वे फेंक किताबें एक तरफ 
तेरे दर्शन को ही तरस  रहे.

कितने तो रूप बनाय लिया !
ये  नए ढंग अपनाय लिया ?
क्या जादूगरनी बन कर के 
अब पुरुष विनाश की ठान लिया ?

कुछ ख्याल करो हे देवी जी 
यह देश गर्त में जाई  रहा 
तज अरुण को  अपने चंगुल से 
यह वर तुमसे मै मांग रहा . 
.
...........अरुण 
(some time in 1984)

गर्दभ ज्ञान

 साधू स्वभाव ! कितना सीधा !!
अद्भुत सरलता का मिसाल !!!
सर्वस्व सहन कर चुप रहते 
शान्ति तुम्हारी बेमिसाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

हो मूक ..थूक  गुस्से को 
तुम चलते हो बोझ को लेकर के 
सारे अधिकार नियंत्रण का 
स्वामी को अपने देकर के 
तुम झूम के चलते दुलकी चाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

जब कभी दुलत्ती देते हो 
तब लगते साहस के प्रतीक
दुनिया से अलग अनोखी ही 
किस अदा से करते तुम कवित्त 
संगीत तुम्हारी बेमिसाल 
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..

शांतिदूत नेहरु जी को ही 
बस वही लोग ही कहते है 
सर्वथा अपिरिचित तुमसे 
या तुमसे जो ईर्ष्या रखते हैं 
मिलना चहिये तुम्हे अबकी बार 
शान्ति का नोबेल पुरस्कार
सचमुच कहता हूँ  गधे राज तुमसा नहीं देखा ..
.
.......................अरुण 
.( some time in 1982)