कभी बिहस उठी कभी दीन दुखी
कभी सीता सती अरु वेद व्रती
कभी कैसी !! हे नारी तू कितनी मुंखी ?
भूषन को कवि बनाई तू
तुलसी को राह दिखाई तू
रक्षा की अपने सत्यवान की
फिर भी इतनी हरजाई क्यूँ?
चंडी बन समर में कूद पड़ी
दुर्गा बन दैत्य से जूझ पड़ी
तेरी घातक बांकी चितवन से
कितनो के जान की आन पड़ी.
तुम सुरसा लक्ष्मी हो भी तुम्ही
अमृत हो पर हो जहर तुम्ही
रूप धरी माँ बहन की पर
शौहर पर अपने कहर तुम्ही
नव पीढ़ी देश के युवकों की
तेरे मोहक पाश में तड़प रहे
वे फेंक किताबें एक तरफ
तेरे दर्शन को ही तरस रहे.
कितने तो रूप बनाय लिया !
ये नए ढंग अपनाय लिया ?
क्या जादूगरनी बन कर के
अब पुरुष विनाश की ठान लिया ?
कुछ ख्याल करो हे देवी जी
यह देश गर्त में जाई रहा
तज अरुण को अपने चंगुल से
यह वर तुमसे मै मांग रहा .
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...........अरुण
(some time in 1984)