Tuesday, July 5, 2011

एक तैलीय कविता

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तेल ही तेल हर तरफ था 
वह भी एक समय था !
फिर आया तेलुओं  का बोलबाला 
तेल लगाने में सब के सब आला 
   अब तो तेल लगने लगा 
   लगवाया जाने लगा 
   पीपा का पीपा भरा जाने लगा 
   तेलियों का तेल 
   तेलुओं के यहाँ सीधा आने  लगा !
एक तो पहले से ही चिकने घड़े थे 
जो आला अफसर थे बड़े थे 
काम में सड़े थे 
घी दूध खाकर पड़े थे 
   मिलने लगा लुत्फ़ उन्हें तेल लगवाने का 
   आँख कान जबान बंद कर - मालिश करवाने का 
   अब तो वे तेलुओं का ही काम करते हैं 
   बाकी के लिए नियम-बद्ध खड़े रहते हैं 
ऐसे ही रहा तेल की खपत बड़ों को रिझाने में 
तब तेल तो महँगा होगा ही आज के जमाने में !!

............अरुण 
(बृहस्पतिवार, जून १३ , २००२ )