Wednesday, November 24, 2010

***** क्यूँ लिखूं ?*****

क्यूँ लिखूं क्या लिखूं क्या क्या लिखूं
प्रजा के रंज राजा के रंग या सत्ता की जंग पर रुबाइयां लिखूं


ऐसा लिखूं कुछ जो मिले तेरी वाहवाहियाँ ?
तो आपके प्रशस्ति में कुछ अपनी ही खामियां लिखूं

लिख डालूं गाथा उदास राष्ट्रभाषा के पीड़ा की
अंग्रेजी के सरपरस्तों को हिंदी में गालियाँ लिखूं

गुनगुनाइए अपने ही गीत मूँद आँख जमाने से
ज़माना गुज़रता है तो क्या ज़माने की परछाइयां
लिखूं

साथ का घर था साथ थे हम फिर न जाने क्या हुआ
भाई का भाई पे ग्रहण का वाकया लिखूं

लिखूं राजनेताओं को बस और बस लानत
इटली की रानी का भरतकुमार पर पुचकारियाँ लिखूं

धधकते हैं शोले नगर नगर फट रहे बम और गोले
संस्कृति परिवर्तन युद्ध है ये आपको चुनौतियां लिखूं

भारत मातरिवंदना है राष्ट्रगीत वन्देमातरम
विरोधी राष्ट्रद्रोही हैं उन्हें तो बस फांसियां लिखूं

लड़ाई यह अपनी है स्वयं लड़कर जीतना है
पराये मुल्कों को क्यूँ अपनी परेशानियां लिखूं

विजय प्राप्त होगी तूफानी अंधियारी रातों पर
अरुणोदय पर अम्बर में नए सूरज की किलकारियां लिखूं

धरती के हर कोने में आसमान तक गूंजे स्वर हिंदी
अरुण के संग हिंदी हिन्दुस्थान की वाहवाहियां लिखूं
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..........................अरुण
( बुधवार १३ सितम्बर २००६)
हिंदी दिवस के लिए



Tuesday, November 23, 2010

कैसे मनाऊँ दीवाली

हर दीपावली पर

झिलमिलाते जगमगाते दिए

जो उल्लास - प्रसन्नता से परिपूर्ण करते थे
...
पटाखे फुलझरियां जो मन को रोमांचित करते थे

इस दीवाली पर

उदास वेदना आच्छादित कर रही हैं

जिसके सानिध्य और संरक्षण में

अब तक दीवाली मनाते रहे

दीपावली पूजा का टीका हम सबके माथे पर लगाने वाले

और दीवाली मनवाने वाले

पू पिता जी

की प्रथम अनुपस्थिति

मन को असहज पीड़ा दे रही है

इस लिए इस दीपावली पर

प्रार्थना

बस प्रार्थना।

................................अरुण 
(दीपावली २०१०, ५ नवम्बर को )

Monday, October 18, 2010

जिंदगी

जैसे तैसे ही चलती है
मैंने देखा है इसे

वश में नहीं यह जीने वाले के
थोड़ा तुम्हारे थोड़ा जग के
बाकी ऊपरवाले के हाथ में खेलती है
मैंने देखा है इसे

अनजाना रहस्य है
कभी नवयौवना के खुले लहराते केश से
खिले निर्द्वंद स्वच्छंद
कभी असूझ अबूझ पहेली
मैंने देखा है इसे

फिर भी सुख है आनंद है
जीने में इसके साथ
स्वार्थ भी है
कि समय हाथ से सरक न जाय
प्रभु ने बहुत थोड़ा दिया है जीने को
जिंदगी ।
........अरुण
१८ अक्तूबर २०१०

Sunday, February 14, 2010

चरैवेति
जिंदगी
इतनी लम्बी जिंदगी
इसे क्षणभंगुर कैसे कहते हो
तिल तिल सरकती जिंदगी
ऊपर नीचे फिसलती जिंदगी
कभी तैरती कभी छलांग लगाती जिंदगी
क़दमों तले झुकती काल चक्र में पिसती
भूख से कसमसाती दर्द से कराहती
मृत्यु आने तक प्रतीक्षा करती
जीती !
लम्बी जिंदगी
क्षणभंगुर कैसे हो सकती है !
जीने की कला नहीं आती
जिंदगी से ही शिकायत हो गयी!
यह हो गयी क्षणभंगुर
और संसार माया हो गयी!
माया से निकलोगे?
मया जाल तोड़ कर भागोगे?
भागो कितना भागोगे
उलझते जाओगे!
क्योंकि यही सत्य है !
माया-जाल जाल नहीं
शाश्वत सत्य है !
यह है - तो - हम हैं
हम हैं तो धर्म है
हम हैं तो ईश्वर है
हम हैं तभी पूरा ब्रह्माण्ड है
नहीं तो
कौन देखेगा सोचेगा बतायेगा ?
कि धर्म क्या ईश्वर क्या ब्रह्माण्ड क्या !
ईश्वर हमारा - ऋणी है - हम उसके
दोनों सत्य है
जिंदगी लम्बी है आओ जीना शुरू करें !!!
..............................अरुण 
(मंगलवार, २९ नवम्बर , २००५ )