Tuesday, April 12, 2011

प्यास

प्यास 
ज्ञान की  प्राप्ति की 
नींद की    सुख की 
वैभव की  बाहुबल की 
पानी की !

कहानी की किताब में 
पानी था  प्यास के लिए  
पर प्यास की तास 
कैसे बढ़ती गयी 
कि पाने की लालसा 
प्यास में परिवर्तित होती गयी 
बुझती नहीं दो चार घूँट में 
सतत लपलपाती हैं इन्द्रियाँ 
दूसरे के हिस्से का भी 
छीन कर पीने को आतुर !

........अरुण  
( मंगलवार, १२ अप्रैल २०११)

Sunday, April 10, 2011

"हर हर बम बम ..."

सर ढको तन ढको 
खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे 
डस लेगा संसार.

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को खुला ही रखना 
बूढ़ा नाई युवा  बैद? मत पास फटकना 
सुन लो भाई राम दुहाई खोल के अपने कान 
पढ़े लिखों की आज हो गयी अंग्रेजी पहचान 
अंग्रेजी अधकचरी ही हो जमकर कर उपयोग 
मान बढ़ेगी इज्जत होगी ऐसा समझ के बोल !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को  बंद ही रखियो 
घर के अन्दर की बात किसी से कभी न कहियो 
नेता देखो - तुरत सलामी देना तू मत भूल 
नेता मंत्री भड़क गए तो चुभ जायेगी शूल 
सरकारी अफसर से बचना कभी न लेना पंगे 
तेरी पानी कीचड होगी उसकी हर हर गंगे !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान तो कान है भाई 
बीवी बच्चे बाप सभी मिल करें खिंचाई 
निर्धनता का रोग ख्नूब है लटके रहते कंधे 
खाज़ कोढ़ में होती जब मंहगाई मारे डंडे !
ज़ेब दिखाता ठेंगा निसिदिन पेट करे फ़रियाद 
बीवी देती तानें ऊपर से कर्ज़े की मार  !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को मारो गोली 
उघड़े तन को नित टीवी में दिखलाती है गोरी 
बेढंगी बेपर्दा करती धन चाहत की भूख 
देस के हीरो बने नचनिये ! टीवी भी क्या खूब 
इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने क्या नाच दिखाई 
भारत माँ निर्वस्त्र हो गयी फिर भी शर्म न आयी !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को भूल ही जाओ 
बस अपनी ही बोलो बोल के छू हो जाओ 
राजनीति औ नेता बन गए गाली के पर्याय 
फिर भी सौंपे उन्ही के हाथों लिखने अपना अध्याय 
सांप को तुमने दूध पिलाया अब हो चला वो मोटा 
घेर घेर के मारे देस को भष्टाचार का सोटा !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार ......
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार.....

.....अरुण 
(रविवार २७ अगस्त २००८)


Thursday, April 7, 2011

तंत्र

पहले राजा (हुआ करते) थे 
अब है लोकतंत्र  !
लोकतंत्र पर आच्छादित 
पल बढ़ रहे कई तंत्र 
पुलिस-तंत्र  प्रशासन-तंत्र   
मंत्री-तंत्र   मंत्री के सगे-संबंधी  तंत्र  
इस तंत्र में मंत्रमुग्ध -
तिरसठ साल से पड़ा लोकतंत्र  !

सुना है पुलिस तंत्र प्रसन्न है 
उनपर लक्ष्मी  मईया  कृपासन्न हैं 
प्रशासन शवासन में लेटा है 
इस तंत्र ने भी अच्छा समेटा है 


तंत्रों के तांते लगे हैं 
प्रधानी से संसद तक 
हर जगह नेताई के खांचे लगे हैं 
फिट होने की होड़ में संख्या बढती जाती है 
तंत्र बढा    नेता बढे
जनता सिमटी जाती है !!
      .........अरुण 
(वृहस्पतिवार ७ अप्रैल २०११)

Tuesday, April 5, 2011

भदेस

भारत हमारा देस है 
सर्वत्र स्वच्छंद परिवेश है 
सभी को समस्त सुविधाएं हैं 
सब फले फूले मोटाये हैं 
दुविधा  का दलदल है 
कहाँ कोई क्लेश है ?
भारत हमारा देस है 

कोई भी श्वान 
कभी भी कहीं भी कुछ भी 
भौंक सकता है !
बनाकर सड़क को नाला 
वराह जब चाहे जितना 
लोट सकता है !
उपलब्ध है चारागाह 
हर प्रकार के गर्दभों को !
राजकीय टिड्डी दल 
हमारे खेतों को खोंट सकता है !
सभी चीजों का सर्वत्र समावेश है 
भारत हमारा देस है.

भूखे भेड़ियों को 
व्यभिचार का चारा 
जन प्रतिनिधियों को 
नारों का नगाड़ा 
चुगने की - बजाने की 
पूर्ण स्वतन्त्रता है !
भिक्षुक जनसेवक भिक्षाटन में 
बाहुबली जन-त्राटन में 
तो बाबा जी वाचन में 
तन्मयता से व्यस्त हैं !

मेरे भाई यही तो सत्य है.
मत कहिये देस में भदेस है
इसी में रच बस जाइए 
यही अब अपने पूर्वजों का देस है
सर्वत्र स्वच्छंद परिवेश है.
भारत हमारा देस है !!

......अरुण
(सोमवार १३ जून २००३ )