Thursday, April 9, 2020

आसमान का पुच्छल तारा

बहुत बेचैनी होती है न
अकुलाहट भी कि
क्यों नही सहेज पाया
रिश्ते की ऐठन
क्यों देखते देखते
छटपटाते हाथों से
सरकता गया संबंधों की डोर
और फिर बिखर कर शांत
तारा टूट कर छटक गया
स्तब्ध आसमान
धीरे धीरे पटरी पर आती जिंदगी
बिना रिश्ते के भी
जीना सिखा ही जाती जिंदगी
अब डोर ही नही तो ऐंठन नही
आसमान अब भी आसमान है
बेचैनी भी अब नही है न...।
- अरुण
गुरुवार 9 अप्रैल , (चैत्र 2077)

Thursday, January 22, 2015

चाँद से ठिठोली


सुन्दर गोरे मुखड़े के पीछे
शातिर चालों का घेरा है
अपनी रूमानी भावों से
नित नयी नयी कलाओं से
मोहपाश धरती पर फेंके  
इस बाग में डाले डेरा है

चेहरे पर भोलापन ओढ़े
प्यारी धरती को लुभा रहा
इस चतुर चमकते तारे को
मत कहना चाँद तो भोला है
अंदर से ढींठ का पॉलीगौन
ऊपर से दिखता गोला है ।

धरती है व्याही सूरज से सूरज से ही सिंचित होती अस्तित्व है पृथ्वी का सूरज सूरज की किरणों से जीती परपुरुष बन रहा धूर्त चाँद धरती को रोज लुभाता है सूरज की अनुपस्थिति मे ही नित अँधियारे मे आता है बेहया घूमता देख चाँद पर पत्थर बच्चों ने मारा है तभी दाग है चेहरे पर यह चाँद तो बस आवारा है
.............................अरुण मंगलवार , 13 जनवरी 2015

Wednesday, March 12, 2014

दोषी कौन !

जेनेरेशन गैप 

पीढ़ी दर पीढ़ी
यही चलती रही है
चलती रहेगी यही सोच ।
आज अस्सी साल का बुजुर्ग
कल चालीस वर्ष की वय मे
ऐसा ही तो था अपने सोच मे ।
कारण - पता नहीं
अनुभव की कमी या फिर
युवावस्था का जोश ?
फिर दोष किसे दें ?

चलेगा ऐसे ही
पीढ़ी दर पीढ़ी !! 

 
........ अरुण 
(मंगलवार , 12 मार्च , 2014)  

Sunday, March 2, 2014

अनुत्तरित


अनुत्तरित  


बछिया गाय से दूध का हिसाब मांगे है 
बड़े ही गूढ गूढ सवालों के जवाब मांगे है ॥


एक तरफ हरियाली दूजे ओर रेगिस्तान क्यूँ 
उसी के पेंड पौधों ने धरती से जवाब मांगे है ॥


रास नहीं आता  छांव  अपनी हरी भरी धरती की 
हिमालय
हो दुरुस्त कैसे  इंडीज* से सुझाव मांगे है ॥ 

बच्चे को बाप की शकल मंजूर नहीं तभी तो 
कितने हैं गिनती में हिन्दू मुसलमान मांगे है ।।


पल्लवित हो पुष्प पहुंचे जब शोखियों के शिखर पर 
माली के ही सँजोये सारे सपने  सारे ख्वाब मांगे है ॥ 


बछिया गाय से दूध का हिसाब मांगे है 
बड़े ही गूढ गूढ सवालों के जवाब मांगे है ॥

.......... अ कु मिश्र  

(वाराणसी मार्च ०१ , २०१४)  


नोट : * इंडीज अमेरिका का एक विश्व प्रसिद्ध पर्वत

Wednesday, January 15, 2014

सिंथेटिक दूध 

सिंथेटिक दूध सिंथेटिक दही
ग़ुम गयी जाने कहाँ 

असली गर्माहट रिश्तों की

मिल रही थोक में 

मुस्कान की सिंथेटिक दूध 

हंसी की सिंथेटिक दही ।

~~~~~~~~~~~~
अंजुरी से निकल नहीं पा रहा 
ओसार में रिस  रिस  के आता

अनचाहा
गंदे बाढ़ का तेज पानी

न चाहा फिर भी घुल  जाता  
मिल जाता  अपनी घर की माटी  में 
कींचड़  से सना  बाढ़  का पानी 

शनैः शनैः  फिर  
अब उसी की चमक 
दिखती है  
और  दिखता है

ढिठाई  भरे  उसके होठों  पर 

मुस्कान की सिंथेटिक दूध 
हंसी की सिंथेटिक दही ।
.
............ अरुण 
बुधवार , 15 जनवरी 2014



Wednesday, September 21, 2011

जमाना सचमुच बदल गया !!


मंजिल किधर नहीं खबर बस चलते जा रहे लोग !
परवाह किसे क्या पथ हो बस चलते जा रहे लोग !!


अभिव्यक्ति भी नहीं पीड़ा की अभ्यस्त हो चला जीवन अब 
ये लाचारी है  या फिर  नाकामी  बस चलते जा रहे लोग !! 


क्या हो गया हवाओं को  किसके संकेत से चलती हैं ?
झोकों को हवा का रुख समझे  बस चलते जा रहे लोग !!


नज़र  लग गयी जमाने को या ज़माना सचमुच बदल गया
या बदले जमाने को पकड़ने को बस चलते जा रहे लोग !!

जमाना  बहती गंगा  है   तुम भी  धो  लो  हाथ 
तुम भी चलना सीख ही लो जैसे चलते जा रहे लोग !!


....................अरुण 
वाराणसी 
बुधवार, २१ सितम्बर, २०११.

Tuesday, July 5, 2011

एक तैलीय कविता

...........^^****^^..........
तेल ही तेल हर तरफ था 
वह भी एक समय था !
फिर आया तेलुओं  का बोलबाला 
तेल लगाने में सब के सब आला 
   अब तो तेल लगने लगा 
   लगवाया जाने लगा 
   पीपा का पीपा भरा जाने लगा 
   तेलियों का तेल 
   तेलुओं के यहाँ सीधा आने  लगा !
एक तो पहले से ही चिकने घड़े थे 
जो आला अफसर थे बड़े थे 
काम में सड़े थे 
घी दूध खाकर पड़े थे 
   मिलने लगा लुत्फ़ उन्हें तेल लगवाने का 
   आँख कान जबान बंद कर - मालिश करवाने का 
   अब तो वे तेलुओं का ही काम करते हैं 
   बाकी के लिए नियम-बद्ध खड़े रहते हैं 
ऐसे ही रहा तेल की खपत बड़ों को रिझाने में 
तब तेल तो महँगा होगा ही आज के जमाने में !!

............अरुण 
(बृहस्पतिवार, जून १३ , २००२ )

Tuesday, April 12, 2011

प्यास

प्यास 
ज्ञान की  प्राप्ति की 
नींद की    सुख की 
वैभव की  बाहुबल की 
पानी की !

कहानी की किताब में 
पानी था  प्यास के लिए  
पर प्यास की तास 
कैसे बढ़ती गयी 
कि पाने की लालसा 
प्यास में परिवर्तित होती गयी 
बुझती नहीं दो चार घूँट में 
सतत लपलपाती हैं इन्द्रियाँ 
दूसरे के हिस्से का भी 
छीन कर पीने को आतुर !

........अरुण  
( मंगलवार, १२ अप्रैल २०११)

Sunday, April 10, 2011

"हर हर बम बम ..."

सर ढको तन ढको 
खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे 
डस लेगा संसार.

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को खुला ही रखना 
बूढ़ा नाई युवा  बैद? मत पास फटकना 
सुन लो भाई राम दुहाई खोल के अपने कान 
पढ़े लिखों की आज हो गयी अंग्रेजी पहचान 
अंग्रेजी अधकचरी ही हो जमकर कर उपयोग 
मान बढ़ेगी इज्जत होगी ऐसा समझ के बोल !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को  बंद ही रखियो 
घर के अन्दर की बात किसी से कभी न कहियो 
नेता देखो - तुरत सलामी देना तू मत भूल 
नेता मंत्री भड़क गए तो चुभ जायेगी शूल 
सरकारी अफसर से बचना कभी न लेना पंगे 
तेरी पानी कीचड होगी उसकी हर हर गंगे !


सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान तो कान है भाई 
बीवी बच्चे बाप सभी मिल करें खिंचाई 
निर्धनता का रोग ख्नूब है लटके रहते कंधे 
खाज़ कोढ़ में होती जब मंहगाई मारे डंडे !
ज़ेब दिखाता ठेंगा निसिदिन पेट करे फ़रियाद 
बीवी देती तानें ऊपर से कर्ज़े की मार  !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को मारो गोली 
उघड़े तन को नित टीवी में दिखलाती है गोरी 
बेढंगी बेपर्दा करती धन चाहत की भूख 
देस के हीरो बने नचनिये ! टीवी भी क्या खूब 
इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने क्या नाच दिखाई 
भारत माँ निर्वस्त्र हो गयी फिर भी शर्म न आयी !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार 
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार 
डस लेगा संसार कान को भूल ही जाओ 
बस अपनी ही बोलो बोल के छू हो जाओ 
राजनीति औ नेता बन गए गाली के पर्याय 
फिर भी सौंपे उन्ही के हाथों लिखने अपना अध्याय 
सांप को तुमने दूध पिलाया अब हो चला वो मोटा 
घेर घेर के मारे देस को भष्टाचार का सोटा !

सर ढको तन ढको खोलो मन के द्वार ......
नेत्र ढकोगे पछताओगे डस लेगा संसार.....

.....अरुण 
(रविवार २७ अगस्त २००८)


Thursday, April 7, 2011

तंत्र

पहले राजा (हुआ करते) थे 
अब है लोकतंत्र  !
लोकतंत्र पर आच्छादित 
पल बढ़ रहे कई तंत्र 
पुलिस-तंत्र  प्रशासन-तंत्र   
मंत्री-तंत्र   मंत्री के सगे-संबंधी  तंत्र  
इस तंत्र में मंत्रमुग्ध -
तिरसठ साल से पड़ा लोकतंत्र  !

सुना है पुलिस तंत्र प्रसन्न है 
उनपर लक्ष्मी  मईया  कृपासन्न हैं 
प्रशासन शवासन में लेटा है 
इस तंत्र ने भी अच्छा समेटा है 


तंत्रों के तांते लगे हैं 
प्रधानी से संसद तक 
हर जगह नेताई के खांचे लगे हैं 
फिट होने की होड़ में संख्या बढती जाती है 
तंत्र बढा    नेता बढे
जनता सिमटी जाती है !!
      .........अरुण 
(वृहस्पतिवार ७ अप्रैल २०११)